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रविवार, 9 मई 2010

एक तरह चका चोंध ' और दूसरी तरफ गरीबी

जब भी घर से बाहर निकलता हूँ मन में एक अजीब सी पीड़ा होती है छोटे - छोटे बच्चे बेच रहे है सडको प़र पानी के पतासे . कोई फटे हुए कपडे पहना भीख मांग रहा है तो कोई पढ़ाई से वंचित है . कोई सर्दी से ठिठुर  रहा है तो कोई गर्मी में लू से तप रहा है . तभी देखता हूँ आगे चलकर शानदार पार्क बना है लगभग १४ एकड़ जमीन में मन को शांति मिलती है देश तरक्की प़र है . बाजारों की चका चोंध देखकर लगता है रोजगार में भी भारत आगे निकल रहा है . तभी लाइनों में भीख का कटोरा लिये खड़े है कुछ बच्चे ,  कुछ बजुर्ग ,  कुछ महिलाए . मन सिहर उठता है तभी एक बजुर्ग कटोरा लेकर एक बड़ी सी दूकान में जाता है दूकान मालिक उसे ५० पैसे कटोरे में डाल देता है . जैसे ही सुबह हुई तो स्टेशन  से देहली की गाडी पकड़ी और बैठ गया मै उसमे  . तभी एक बच्चा आया हाथ में कुछ संगीत का यंत्र लिये . तभी कुछ आवाज़ आई ' गरीबो की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा . तभी एक दोस्त जेब से एक रुपया निकलता है और उसकी कटोरी में तेज़ से डालता है और कहता है ' चल बे . एसे सारे रास्ते कभी कोई मांगने आ रहा है तो कभी कोई चाय , चाय , छोले - छोले . तभी अपना स्टेशन आया और में गाडी से उतरा शहर में लाखो रूपए की महंगी गाडिया थी बड़े बड़े मोल  . दुकाने , लाइटे , चोडी - चोडी सड़के , बड़ी महंगी गाडियों का काफिला जा रहा था कोई भी गाडी १० लाख से कम नही थी चका चोंध से भरा शहर था नेता जी  महंगी गाडियों में मिनरल वाटर की बोतल का पानी पीते हुए सर से गुजर रहे थे . सारा शहर घुमा एक चमकदार शहर है दिल्ली . शाम को वापस ट्रेन  में बैठा फिर वही सब झोपड़ पट्टी बच्चे चाय बेचते . मन में एक सवाल कुरेद रहा था कही आधुनिकता और विकास के नीचे ये तबका दब न जाए . बड़ी बिल्डिंग के नीचे मजदूर न दब जाए . एक तरह चका चोंध ' और दूसरी तरफ गरीबी ठण्ड से सिकुड़ते बच्चे जो आजादी के ६३ सालो बाद भी एक पैसा मांग रहे है गा रहे है . २ रोटी के लिये हाथ फैला रहे है भले ही कितने मदर दे मना लो , फादर  दे मना लो  , चिल्ड्रन  दे मना लो लेकिन अंतिम सच्चाई तो यही है . आज भी बजुर्ग , महिलाओं , और बच्चो का ये हाल है युवा का भी कुछ एसा ही हाल है . यही है भारत  जो की मीडिया और नेता और ख़ास आदमी देख नही पाता समझ नही पाता जब की ये भी जीव है भारतीय है

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