न ही वह जोहड़ गाय भैंस पीती थी पानी जहा
बदला बदला सा सब कुछ यहा नही घरो में बनती अब देसी घी की चुरिया
न ही घरो में सुनती दादी माँ की कहानियाँनही लगती वे चोपाले जहाँ लगते थे कभी ठहाके
ताऊ चाचा न कोई हो गये अब सभी सर हमारे
बदला बदला सा सब कुछ यहा
नही सजती वो महफ़िल दोस्तों की
नही लगते वे मेले जिनमे हम थे कभी खेलेकुश्ती कब्बडी से अब है दूरिया
एक गेंद के पीछे पड़े है ग्यारह यहाँ
अब मै हूँ और मेरी तन्हाईया
अब मै हूँ और मेरी तन्हाईया
नया नया सा दीखता सब कुछ यहाँ
बहुर सुन्दर रचना है....अच्छी लगी।
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